टेस्ट ट्यूब बेबी अर्थात परखनली शिशु का विकास।
विज्ञान की सहायता से मनुष्य ने केवल तीव्र गति ही हासिल नहीं की, बल्कि अपने जीवन की अनेक जटिल समस्याओं के हल भी निकले हैं। संतानहीनता पहले एक ऐसी समस्या थी, जिसका समाधान संभव नहीं था इससे होता यह था कि दुनिया भर के लाखों दंपति संतानहीन रह जाते थे लेकिन अब इस समस्या का हल निकाला जा चुका है। दरअसल, ऐसी समस्या के समाधान के लिए टेस्ट ट्यूब बेबी अर्थात परखनली शिशु की अवधारणा का विकास हुआ है।
टेस्ट ट्यूब बेबी क्या है?
प्रयोगशाला में टेस्ट ट्यूब में गर्भधारण करवा कर शिशु को जन्म देने की तकनीक को इन विट्रो फर्टिलाइजेशन (आईवीएफ) कहा जाता है। यह एक तकनीक है, जिसकी सहायता से महिलाओं में कृत्रिम गर्भधारण किया जाता है, इस प्रक्रिया में किसी महिला के अंडाशय से अंडाणु को अलग कर उसका संपर्क शुक्राणु से शरीर से बाहर एक परखनली में कराया जाता है। परखनली में निषेचन की प्रक्रिया पूरी होने के बाद निषेचित अण्डे को महिला के गर्भाशय में रख रख दिया जाता है। गर्भाशय में सही समय तक रहने के बाद एक स्वस्थ शिशु का जन्म होता है। यही टेस्ट ट्यूब बेबी कहलाता है।
टेस्ट ट्यूब बेबी (IVF) की खोज किसने किया?
ब्रिटिश फिजियोलॉजिस्ट प्रोफेसर रॉबर्ट एडवर्ड ने नि:संतान दंपतियों की मदद के लिए टेस्ट ट्यूब बेबी अर्थात इनविट्रो फर्टिलाइजेशन (आईवीएफ) तकनीक का विकास 20वीं सादी में 70 के दशक में किया था। इसके पहले कई दशकों तक प्रयास के बाद उन्हें इस कार्य में सफलता प्राप्त हुई थी। एडवर्ड को स्त्री रोग विशेषज्ञ पैट्रिक स्टेपटो का विशेष सहयोग मिला। उनके प्रयासों के फलस्वरुप एवं उनके सहयोग से विश्व की पहली टेस्ट ट्यूब ( जिसका नाम लुइस ब्राउन है ) का जन्म 1978 में हुआ। तब से लेकर आज तक इस तकनीक की सहायता से विश्व में करीब 50 लाख से अधिक लोग संतान से प्राप्त करने में कामयाब रहे हैं। इस तकनीकी सहायता से आज गर्भधारण करने वाले हर पांच दंपति में से एक अपने प्रयास में सफल रहता है।
चिकित्सा के क्षेत्र में मिला नोबेल पुरस्कार।
इन विट्रो फर्टिलाइजेशन तकनीक के आविष्कार के महत्व को समझते हुए 2010 में रॉबर्ट एडवर्ड को चिकित्सा के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। नोबेल पुरस्कार देने वाली समिति ने पुरस्कार देने का कारण बताते हुए कहा था, “संतानोत्पत्ति में असमर्थता एक है, जो विश्व के 10% दंपतियों को प्रवाहित करती है और इस समस्या के निदान में जो अभूतपूर्व योगदान रॉबर्ट एडवर्ड ने दिया है, उसी के लिए उन्हें मेडिसिन के क्षेत्र में इस वर्ष नोबेल पुरस्कार दिया जा रहा है।
कई और नई तकनीकें।
आरंभिक दौर में आई.वी.एफ तकनीक का प्रयोग महिलाओं में फैलोपियन ट्यूब की समस्या के समाधान के तौर पर किया जाता था, लेकिन अब इसकी ऐसी तकनीक भी विकसित हो गई है, जो उन पुरुषों की संतान की चाह भी पूरी कर सकती है, जो इस कार्य में किसी कारणवश अक्षम है। वर्तमान में आई.वी.एफ में कई तकनीक प्रचलन में है। जिसमें आई.सी.एस.आई., जेड.आई.एफ.टी., जी.आई.एफ.एफ.टी. एवं पी.जी.डी. प्रमुख है। आई.सी.एस.आई. का प्रयोग उस स्थिति में किया जाता है, जब अंडों की संख्या कम होती है या फिर शुक्राणु, अंडाणु से क्रिया करने लायक बेहतर अवस्था में नहीं होते हैं। इसमें माइक्रो मैनिपुलेशन तकनीक द्वारा शुक्राणुओं को सीधे अंडाणुओं में इंजेक्ट कराया जाता है। जेड. आई.एफ.टी. में महिला के अंडाणुओं को निकाल कर उन्हें निषेचित कर महिल के गर्भाशय में स्थापित करने के बजाय उसकी फैलोपियन ट्यूब में स्थापित कर दिया जाता है।
दुनिया भर में विरोध।
प्रारंभ में इस तकनीक का दुनिया भर में विरोध किया गया। इसकी नैतिकता पर सवाल खड़े किए गए। राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्तर पर भी इस तकनीक का व्यापक विराेध हुआ। यहां तक की इस तकनीक की विश्व विश्वसनीयता को लेकर वैज्ञानिक ने भी इसका अच्छा खासा विरोध किया। अधिकतर वैज्ञानिक का यह मानना था, कि इस तकनीक से पैदा हुए बच्चे कभी सामान्य नहीं हो सकते। किंतु, इस तकनीक के सामान्य होने के सभी संदेह तब दूर हो गए, जब वर्ष 2006 में दुनिया की पहली टेस्ट ट्यूब बेबी लुई ब्राउन ने अपने बच्चों को जन्म दिया और इसमें खास बात यह थी कि उसने अपने पति वेस्ली मुलिंडर से प्राकृतिक तरीके से गर्भाधान किया था।
भारत में पहली टेस्ट ट्यूब बेबी।
आई.वी.एफ. तकनीक की सहायता से अब मनचाहे गुणों वाली संतान और अनेक प्रकार की बीमारियों से जीवन पर्यंत सुरक्षित रहने वाली संतान को जन्म देना भी संभव हो गया है। यद्यपि इस कारण इसका विरोध भी किया जाता है। लोगों का यह मानना है कि इसके माध्यम से केवल अच्छे से अच्छे लोग ही नहीं बल्कि बुरे लोगों का भी जन्म संभव है, इसलिए यह तकनीकी यदि मनुष्य के लिए लाभदायक है, तो इसमें नुकसान की संभावना भी काम नहीं। बात चाहे जो भी हो, इस तकनीक के माध्यम से संतान की इच्छा रखने वाले लोगों का अवश्य लाभ हुआ है। यह तकनीक मानवता के लिए निश्चित रूप से लाभकारी है। इसलिए इसके व्यापक विकास एवं प्रसार की आवश्यकता है। भारत में भी इस तकनीक का प्रयोग शुरू हो गया है। भारत में इस तकनीक से पैदा हुए पहले टेस्ट ट्यूब बेबी का नाम दुर्गा है।
टेस्ट ट्यूब बेबी तकनीक एक वरदान।
समाज में वंश परंपरा को कायम रखने एवं कई अन्य कारणों से लोग संतान प्राप्ति की इच्छा रखते हैं। संतान के अभाव में मनुष्य का जीवन निरस्त हो जाता है। उन्हें जिंदगी भर एक कमी खलती रहती है। ऐसे नि:संतान दंपतियों के लिए यह तकनीक वरदान साबित हुई है। हालांकि इस तकनीक के आलोचकों का कहना है कि इससे लाभ केवल अमीर लोगों को ही मिलेगा, क्योंकि इस विधि से गर्भाधान करना खर्चीला होता है और आम आदमी किस खर्च को वहन कर सकने में सक्षम नहीं होता, किंतु आलोचकों की यह स्थिति जल्द ही दूर हो जाएगी आने वाले समय में यह तकनीक सस्ती एवं सर्व–सुलाभ भी होगी। इस तकनीक ने लाखों लोगों को संतान सुख से संपन्न कर दुनिया को खुशहाल करने का अभूतपूर्व कार्य किया है। इसके लिए इसकी जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है।
टेस्ट ट्यूब बेबी क्या हैं?
प्रयोगशाला में टेस्ट ट्यूब में गर्भधारण करवा कर शिशु को जन्म देने की तकनीक को इन विट्रो फर्टिलाइजेशन (आईवीएफ) कहा जाता है। यह एक तकनीक है, जिसकी सहायता से महिलाओं में कृत्रिम गर्भधारण किया जाता है, इस प्रक्रिया में किसी महिला के अंडाशय से अंडाणु को अलग कर उसका संपर्क शुक्राणु से शरीर से बाहर एक परखनली में कराया जाता है। परखनली में निषेचन की प्रक्रिया पूरी होने के बाद निषेचित अण्डे को महिला के गर्भाशय में रख रख दिया जाता है। गर्भाशय में सही समय तक रहने के बाद एक स्वस्थ शिशु का जन्म होता है। यही टेस्ट ट्यूब बेबी कहलाता है।
टेस्ट ट्यूब बेबी की खोज कब हुई और किसने किया?
ब्रिटिश फिजियोलॉजिस्ट प्रोफेसर रॉबर्ट एडवर्ड ने नि:संतान दंपतियों की मदद के लिए टेस्ट ट्यूब बेबी अर्थात इनविट्रो फर्टिलाइजेशन (आईवीएफ) तकनीक का विकास 20वीं सादी में 70 के दशक में किया था।